अँधेरे से निकल के उजाले को ढूंढती,
सुबह के सूरज से, शाम की अदा संग बहेती;
हर गली से गुज़रती,
कभी आँधी तो कभी बरखा का पैगाम देती;
हर पत्ते को छू लेती,
फूलों की खुशबू हर दिशा महेंकाती,
खिलखिलाती हँसी की तरह,
आसमान संग उड़ के ख़ुशी फैलाने वाली;
चाहती हूँ मैं ऐसी बन जाऊ,
बेबाक अल्ल्हड़ पवन सी खो जाऊ!!
Last line of this poem above is taken from the song 'Masha allaah!' from Saawariya (of course!). I am just in love with that song. It's so soft and so deep, so clear and so profound :)
You can admire the song later, admire the poem right now ;-)
Love
KrupA
2 comments:
Masha Allah...
love it. yuvaraaj
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