Wednesday, December 12, 2007

जागी इक तमन्ना ~

अँधेरे से निकल के उजाले को ढूंढती,
सुबह के सूरज से, शाम की अदा संग बहेती;

हर गली से गुज़रती,
कभी आँधी तो कभी बरखा का पैगाम देती;

हर पत्ते को छू लेती,
फूलों की खुशबू हर दिशा महेंकाती,

खिलखिलाती हँसी की तरह,
आसमान संग उड़ के ख़ुशी फैलाने वाली;

चाहती हूँ मैं ऐसी बन जाऊ,
बेबाक अल्ल्हड़ पवन सी खो जाऊ!!

Last line of this poem above is taken from the song 'Masha allaah!' from Saawariya (of course!). I am just in love with that song. It's so soft and so deep, so clear and so profound :)

You can admire the song later, admire the poem right now ;-)

Love
KrupA